Aagam Manthen

युगद्रष्टा युगद्रष्टा आचार्य प्रवर श्री ज्ञानचंद्र जी म.सा. उत्तराध्ययन सूत्र : शिष्य का कर्तव्य मूल पाठ : अप्प पाणेऽप्प बीयम्मि, पडिच्छन्नम्मि संवुडे। समयं संजए भुजे, जयं अपरिसाडियं॥35॥ संस्कृत छाया : अल्प प्राणेऽल्प बीजे, प्रतिच्छन्ने संवृते। समकं संयतो भुञ्जीत यतमपरिशाटितम्॥ साधु अल्प प्राणों और अल्प बीज वाले, चारों ओर से ढके हुए, आदि से घिरे हुए, उपाश्रय आदि स्थान में अपने समान साधुओं के बैठकर यतना से भूमि पर न गिराता हुआ आहार करेआहार करते वक्त भी सभ्यता-विनय को झलकाया गया है। निर्दोष-निर्बीज स्थान पर आहार करना चाहिये। जहाँ पर जीव या तो नहीं हों या फिर बहुत कम हों। इसी तरह बीज हो या बिखरे हुए न हों। चारों ओर से आच्छादित हो और ऊपर ढका हो ताकि ऊपर से खुले आकाश में कुछ जीव-जंतु न गिर इधर-उधर से पशु-पक्षी या भिखारी, साधु को परेशान न करें खाते वक्त अगर कोई बुभुक्षित आ गए और उसे न दे तो भी नहीं और देना मर्यादानुकूल नहीं है। साधु अपने सहवर्ती साधु को विनय भाव से आमंत्रण करके सम्मानपूर्वक उनके साथ आनीत-लाए गए आहार को ग्रहण करे। साधु अपने सहवर्ती साधु को विनय भाव से आमंत्रण करके सम्मानपूर्वक उनके साथ आनीत-लाए गए आहार को ग्रहण करे। कहने का तात्पर्य है कि साधु के हर व्यवहार में विनय झलकना लेखक के विचारों से सम्पादक अथवा महासंघ का सहमत होना आवश्यक नहीं है। -सम्पादक


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